शापित अनिका: भाग ९

ठाकुर विशम्भरनाथ अनिका और अरुणिमा जी को मंदिर से लेकर सीधे हवेली पहुंचे। पूरी गाड़ी में अनिका अपने ख्यालों में गुम रही।

"अनु...." अरूणिमा जी के कहने पर उसकी तंद्रा भंग हुई।

"हं.... हां मा?" अनिका चौंककर बोली।

"हम घर आ गये बेटा! तुम ठीक हो?" अरूणिमा जी चिंता से बोलीं।

"हां मां, बस रात को नींद पूरी नहीं हुई तो थोड़ा सा सिरदर्द हो रहा है।" अनिका गाड़ी से उतरते हुये बोली।

"ठीक है.... तुम हाथ- मुंह धो लो, मैं तब तक तुम्हारी कॉफी का इंतजाम करती हूं। उसके बाद कुछ देर सो लेना।" अरूणिमा देवी ने प्यार से अनिका के गाल सहलाये और अंदर चलीं गई।

"पापा क्या सच में वो श्राप वाली बात...." अनिका ने पूछा तो ठाकुर साहब ने गहरी सांस भरी।

"बदकिस्मती से सच है बेटी! न जाने कितनी बार हमारे पुरखों ने इस शाप को तोड़ने का असफल प्रयास किया। कितने संत- महात्मा और पीर- ओझा आये लेकिन ये श्राप सबको निगल गया।" ठाकुर साहब चिंता में बोले।

"लेकिन...." अनिका ने कुछ कहना चाहा, फिर मुस्कुराकर बात बदलते हुये बोली- "आई प्रॉमिस पापा, इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा।"

"मुझे पता है मेरी बच्ची!" ठाकुर साहब ने अनिका को छाती से लगा लिया- "मुझे भगवान और गुरूजी पर पूरा भरोसा है।"

"और अपनी गुड़िया पर नहीं है?" अनिका ने बनावटी नाराजगी दिखाई।

"तुम पर तो हमें अपनी जान से भी ज्यादा भरोसा है।" ठाकुर साहब की बात सुनकर अनिका मुस्कुरा दी और दोनों ने हवेली के अंदर कदम रखा। तब तक अरूणिमा जी अनिका के लिये कॉफी और अपने व ठाकुर साहब के लिये चाय लेकर हॉल में आ गईं।

"थैंक्यू मम्मा!" अनिका ने मुस्कुराकर कॉफी लेते हुये कहा।

"तो! क्या कहा गुरूजी ने?" अरूणिमा जी ने चाय का एक घूंट लेकर पूछा।

"कुछ नहीं। बोले कि हमें तो तुम्हें बस उस श्राप के पीछे की कहानी सुनानी थी। श्राप तोड़ने का रास्ता तुम्हें खुद ही ढूंढना होगा।" अनिका ने असमंजस में कहा।
"क्या?" ठाकुर साहब चौंककर बोले- "लेकिन स्वामी जी तो...."

"मेरी कुंडलिनी शक्ति जगाने को आये थे। बोले इस शक्ति से ही तुम्हें अघोरा को मारने का रास्ता मिलेगा।"

"लेकिन हमारे कुलगुरू विद्याधर शास्त्री जी ने तो कहा था कि वो इस श्राप को तोड़ने में हमारी मदद करेंगें।" अरूणिमा देवी चिंतित स्वर में बोलीं।

"उन्होंने तो आशुतोष से मिलने के लिये बोला है। शायद उसके पास कोई रास्ता हो?" अनिका अपने आप में बड़बड़ाई और अचानक उछलते हुये दोनों से बोली- "अच्छा मम्मा- पापा, मैं कुछ देर सो जाती हूं। आप दोनों भी रात- भर नहीं सोये तो आप भी सो जाइये। और हां पापा.... मैं आज शाम को ही देहरादून जा रही हूं।"

इतना कहकर अनिका अपने कमरे में चली गई, जबकि ठाकुर विशम्भरनाथ और अरूणिमा जी चिंतित नजरों से उसे जाते देखते रहे।

* * *

उधर हॉस्पिटल में शिवदास जी का कार्य सम्पूर्ण हुआ, अत: वो शिवानंद को साथ लेकर वापस जा रहे थे। अभी वो अस्पताल के मुख्य- द्वार पर पहुंचे ही थे कि एक विचित्र सी अनुभूति के कारण उनके चलते कदम थम गये।

"शिवानंद.... क्या तुम्हें कुछ अनुभव हो रहा है वत्स!" स्वामी जी ने मुड़कर शिवानंद से पूछा।

"हां गुरूजी! मानों यहां किसी भयंकर नकारात्मक शक्ति ने प्रवेश किया हो।" शिवानंद ने थूक गटकते हुये कहा।

"शिव.... शिव.... शिव.... उसे पता लग गया। हमें उसे रोकना होगा।" स्वामी जी के मस्तक पर चिंता की रेखायें उभरीं और वो तुरंत आशुतोष के वार्ड की तरफ भागे। गुरूजी की बात सुनकर शिवानंद भी तेजी से लिफ्ट की तरफ दौड़ा। जल्द ही दोनों आशुतोष के वार्ड में थे, जहां डॉक्टर आशुतोष के चले जाने से नाराज सबको डांट रहे थे।

"आपको अंदाजा भी है मि. बिष्ट कि ऐसी क्रिटिकल हालत में उनका ऐसे बाहर जाना उनके लिये कितना नुकसान कर सकता है?" डॉक्टर श्यामसिंह पर चिल्ला रहे थे।

"आई कैन अंडरस्टैंड डॉक्टर!" मि. श्यामसिंह शांति से बोले- "लेकिन कई बार आराम और सेहत से भी ज्यादा काम होते हैं करने को।"

"आशुतोष कहां है?" स्वामी जी धड़धड़ाते हुये वार्ड में घुसे।

स्वामी शिवदास को वार्ड में देखकर सब लोग चौंक गये। खासकर श्यामसिंह दुश्चिंताओं से घिर गये। बोले- "स्वामी जी! आप यहां कैसे? आप तो...."

"वो सब बाद में बताऊंगा श्यामसिंह, पहले ये बताओ कि आशुतोष कहां है?" स्वामी शिवदास व्यग्रता से बोले।

"वो तो अभी पांच मिनट हुये, यहां से चला गया। उसी बात पर तो डॉक्टर साहब हमको डांट रहे थे।" जवाब विमला देवी ने दिया।

"सत्यानाश!" स्वामी शिवदास ने गहरी सांस छोड़ी- "हे महादेव! अब बस आप ही का आसरा है।"

"क्या हुआ स्वामी जी?" अबकी मिशा ने पूछा।

"हं.... ज्यादा कुछ नहीं, वो आशुतोष ने आपको रक्षा- सूत्र बांधने को कहा था लेकिन हम भूल गये। अब याद आया तो सोचा क्यूं न उसे भी बांध दे, लेकिन वो यहां है ही नहीं!" स्वामी शिवदास ने मुस्कुराकर कहा और शिवानंद को इशारा किया।
शिवानंद ने भी गुरूजी का इशारा समझकर जेब से एक लाल धागा निकाला और एक- एक कर सबके हाथों पर लपेटने लगा।

"इस रक्षासूत्र के चक्कर में तो ड़र से हमारी जान ही निकल गई थी।" श्यामसिंह मुस्कुराये।

"हमारी भी!" स्वामी जी बुदबुदाते हुये तेजी से वार्ड के बाहर निकल गये।

उधर आशुतोष वार्ड से निकलकर सीधे लिफ्ट में घुसा और तेजी से हॉस्पिटल के बाहर निकल गया। उसके मन में अन्तर्द्वन्द्व छिड़ा था। जहां एक ओर उसका दिमाग ये सोच- सोचकर खराब था कि आखिर वो कैसे इस श्राप का तोड़ निकालेगा? तो वहीं दूसरी ओर वो ये सोचकर खुश था कि इसी बहाने उसे अनिका के साथ बिताने के लिये काफी वक्त मिलेगा। मन में ये ख्याल आते ही उसके होंठों पर मुस्कुराहट तैर गई।

आशुतोष की २००२ मॉड़ल की स्कॉर्पियो देहरादून की सड़कों पर भाग रही थी। उसे बस जल्द से जल्द भवानीपुर पहुंचकर अनिका से मिलना था। ड्राइविंग सीट पर बैठा वो बस अनिका के ख्यालों में ही खोया था। इतना खोया था कि उसे ये भी नहीं पता चला कि गाड़ी में वो अकेला नहीं है, बल्कि उसकी बगल की सीट पर कोई और भी है।

"वो बहुत सुंदर है न!" आशुतोष के कानों में आवाज आई।

"हां, बहुत ज्यादा।" आशुतोष ने बेध्यानी में कहा।

"लेकिन अफसोस.... वो तुम्हें कभी नहीं मिल पायेगी। उससे पहले ही तुम यमलोक पहुंच जाओगे।"

"बस करो यार!" आशुतोष ने बिगड़ते हुये कहा लेकिन जैसे ही उसकी नजर अपने बगल वाली सीट पर पड़ी, उसकी नजर फटी की फटी रह गई।

उसके बगल में एक काली आकृति बैठी थी, जिससे निरंतर काला धुंआ उठ रहा था। ऐसा लग रहा था कि मानों उसने काले धुंये के ही कपड़े पहनें हों। उसके सिर्फ हाथ का पंजा ही दिख रहा था, जिसपर सफेद पपड़ी जमी थी।

"त.... तुम.... अघोरा तो नहीं हो सकते!" आशुतोष के माथे पर कुछ पसीने की बूंदे आ गईं- "तो फिर तुम हो कौन?"

"तुम्हारी मौत...." उस स्याह आकृति ने गूंजती आवाज में कहा और अचानक काले धुंये में तब्दील होकर आशुतोष की तरफ बढ़ गई।

आशुतोष को लगा कि मानों कोई उसका गला दबा रहा है। उसे सांस लेने में दिक्कत होने लगी। वो दोनों हाथों से उस धुंये से अपना गला छुडाने की कोशिश करने लगा, जिससे गाड़ी का स्टेयरिंग उसके हाथों से छूट गया था। आशुतोष को सांस लेने के लिये काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था मानों गाड़ी के आस- पास ऑक्सीजन ही न बचा हो। उसकी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और तभी गाड़ी डिवाइडर से टकराकर पलट गई और पुल से नीचे गिर पड़ी।

गाड़ी के जमीन से टकराते ही वो काला धुंआ गाड़ी से निकलकर आसमान में कहीं गायब हो गया। उधर आशुतोष ने बड़ी मुश्किल से गाड़ी का दरवाजा खोला और रेंगकर गाड़ी से बाहर निकला। गाड़ी से बाहर निकलते ही वो एक ओर लुढ़क गया और गहरी- गहरी सांसे लेने लगा। उसने एक नजर गाड़ी की तरफ देखा, जिसका भट्टा बैठ गया था। गाड़ी की ऐसी हालत देख उसकी आंखों में आंसू आ गये थे।

उसने उठने की कोशिश की तो बदन में एक तेज दर्द की लहर दौड़ पड़ी। उसने अपने पेट की तरफ देखा तो वहां से खून रिस रहा था। उसके पेट पर लगे टांके खुल चुके थे। वो जमीन पर लेट गया और गाड़ी की तरफ देख कर दांत पीसते हुये बोला-
"बेटा अघोरा.... अगर मैं बच गया तो फिर तुझे जिंदा नहीं छोडूंगा।"

* * *


ठाकुर साहब, अरूणिमा जी और अनिका रात भर के जगे थे इसलिये मंदिर से आते ही सब लोग सोने चले गये। अनिका की जब आंख खुली तो शाम के चार बज चुके थे।


"अरे यार! ये कमबख्त नींद...." वो बड़बड़ाती हुई बिस्तर से उठी और सीधे बाथरूम में घुस गई। करीब घंटे भर बाद वो बाथरूम से तैयार होकर बाहर आयी और सीधे हॉल की तरफ भागी।


हॉल में डायनिंग टेबल पर ठाकुर साहब बैठे चाय पी रहे थे। जब उनकी नजर दौड़ते हुये सीढियां उतरती अनिका पर पड़ी तो बोल पड़े- "अरे! अरे! आराम से गुड़िया! ऐसी भी क्या जल्दी है?"


"ओह पापा! मैं पहले ही लेट हो गई हूं। आप जानते हैं न कि देहरादून के लिये पांच घंटे का रास्ता है और पांच यही बज गये हैं।" अनिका ने टेंशन में कहा।


"तो क्या हुआ?" ठाकुर साहब मुस्कुराये- "तुम्हें कौन सा बस पकड़नी है। मैं तो आ रहा हूं न तुम्हें पहुंचाने।"


"फिर भी पापा पहुंचते- पहुंचते आधी रात हो जायेगी।" अनिका ने ठाकुर साहब की बगल वाली कुर्सी पर बैठकर एक सेब पर दांत गढ़ाते हुये कहा।


"तो क्या हुआ? मैं खाना बनाकर दे रही हूं न! अब जाकर बस खाना ही तो है।" अरूणिमा जी ने डायनिंग टेबल पर टिफिन रखते हुये कहा- "सोचा था कि कम से कम पूजा के बाद तो चैन से बात होगी लेकिन...."


"अरे मां! आप क्यों परेशान हो रहीं हैं? एक बार ये काम निपट जाये तो फिर आराम से बैठकर बातें करेंगें। आप कहोगी तो मैं एक महीना यहीं आकर रह लूंगी।" अनिका ने हंसते हुये अरूणिमा जी के गले में बाहों का हार ड़ाल दिया।


"यही तो तूने सुबह मंदिर जाते समय भी कहा था।" अरूणिमा जी भी मुस्कुराते हुये बोली- "भगवान करे जल्दी से इस पिंड से पीछा छूटे, तो मैं अपनी बच्ची से दो बातें कर पाऊं।"


"तो रोज जो आधा- एक घंटा फोन पर चिपकी रहती हो उसका क्या?" ठाकुर साहब ने कहा तो तीनों हंस पड़े।


"अच्छा पापा, अब चलिये! हम वैसे भी काफी लेट हो गयें हैं।" कहते हुये अनिका टिफिन उठाकर बाहर चली गयी। ठाकुर साहब ने भी चाय का आखिरी घूंट भरा और गाड़ी की चाबियां लेकर हॉल से बाहर हुये।


* * * 



आशुतोष की कार पलटते ही वहां लोगों का तांता सा लग गया। हर कोई दूर से पलटी कार को देख रहा था लेकिन पास जाकर मदद करने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। आशुतोष हिम्मत करके उठा और भीड़ के करीब जा पहुंचा।


"भाई साहब! गाड़ी की फोटो बाद में खींच लेना, पहले मुझे मेट्रो तक छोड़ आओ।" आशुतोष ने एक आदमी के कंधे पर हाथ रखकर कहा, जो स्कॉर्पियो की फोटो ले रहा था।


"अरे भाई! हम मदद करते लेकिन ये पुलिस केस है। आप समझो न! थोड़ी देर रुक जाओ.... पुलिस और एम्बुलेंस आती ही होगी। हमने फोन कर दिया है।" आदमी ने गुटखे की पीक थूकते हुये कहा।


"थ्री माइनस टू...." आशुतोष ने दांत भींचते हुए कहा और दूसरे आदमी की तरफ बढ़ गया। इससे पहले कि दूसरे आदमी से मदद मांग पाता, उसके पैर लड़खड़ाये और वो जमीन पर गिर पड़ा। धीरे- धीरे उसकी आंखे बंद होने लगीं।


आशुतोष को जब होश आया तो वो अपने उसी पुराने वार्ड में था और पूरा परिवार उसके इर्द- गिर्द जमा था।


"यू ईड़ियट.... ऑपरेशन हुये बारह घंटे भी पूरे नहीं हुये और गाड़ी लेकर देहरादून- भ्रमण पर निकल पड़े? किसने कहा था हॉस्पिटल से जाने को? कम से कम डॉक्टर से डिस्चार्ज लेने तक तो रूक जाते!" मिशा ने भड़कते हुये कहा।


"मेरी मां, पहले मुझे ढंग से सांस तो लेने दे!" आशुतोष ने गहरी सांस लेकर कहा- "और ये बता कि मैं यहां पहुंचा कैसे?"


"एक लेड़ी थी। अपनी गाड़ी में तुम्हें यहां छोड़कर चलती बनीं।" जवाब सिड़ ने दिया।


"लेकिन तुम्हारा एक्सीडेंट हुआ कैसे?" श्यामसिंह ने पूछा


"कुछ नहीं पापा, वो रास्ते में अचानक एक गाय आ गई और उसी को बचाने के चक्कर में गाड़ी डिवाइडर से टकरा गई।" आशुतोष ने झूठ बोला लेकिन मि. श्यामसिंह को उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ। बोले- "तुम्हारे जाते ही स्वामी जी दौड़ते हुये आये और तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे। हमें लगा कि कहीं...."


"हां, हो सकता है कि कोई भूत गाय बनकर मेरा एक्सीडेंट कराने आया हो!" आशुतोष ने कहा तो सिड़ और मिशा की हंसी छूट गई।


"वैसे गाड़ी की कंडीशन क्या है?" आशुतोष ने पूछा तो सबने सिर झुका लिया। सब जानते थे कि उस गाड़ी की आशुतोष की जिंदगी में क्या एहमियत थी।वो कभी उसकी मां की गाड़ी हुआ करती थी ऐर उसके पास उनकी यही एक निशानी बची थी। यही कारण था कि घर में एक से बढ़कर एक महंगी कारें  होते हुये भी वो उस स्कॉर्पियो के पुराने मॉडल को लेकर घूमता था।


"हैवी ड़ैमेज है, लेकिन तुम चिंता मत करो.... हम उसे रिपेयर करवा लेंगें।" मि. श्यामसिंह ने मुस्कुराने की कोशिश की लेकिन आशुतोष ने कोई जवाब नहीं दिया। वो बस आंखों में आंसू लिये आसमान की छत की तरफ देखने लगा।


"आज उसने हद पार कर दी.... मैं उसे नहीं छोड़ने वाला!" आशुतोष गुस्से में गुर्राया।


* * *




स्वामी शिवदास अपने आश्रम में विश्राम कर रहे थे, जब उनके शिष्य शिवानंद के साथ स्वामी अच्युतानंद ने कमरे में प्रवेश किया।


"आइये अच्युतानंद जी!" शिवदास जी ने अच्युतानंद जी को आसन दिखाते हुये कहा- "बैठिये.... आज आप बड़े प्रसन्नचित मालूम होतें हैं। कोई विशेष कारण?"


"धन्यवाद!" अच्युतानंद जी ने आसन पर बैठते हुये कृतघ्नता जताई- "इतना बड़ा कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुआ, इससे अधिक प्रसन्नता का विषय क्या होता है?"


स्वामी अच्युतानंद की बात सुनकर शिवदास जी चिंतित होकर बोले- "परन्तु कदाचित अघोरा को इसका पता लग चुका है कि हम आशुतोष की सहायता कर रहें हैं।"


"आप ये कैसे कह सकते हैं?" अच्युतानंद जी के मस्तक पर भी चिंता की लकीरें उभर आई।


"आज हम जैसे ही आशुतोष को दिव्य- ज्ञान देकर चिकित्सालय से निकले, हमें वहां एक तीव्र नकारात्मक शक्ति का आभास हुआ और जब हम मार्ग में थे तो हमें ज्ञात हुआ कि उस शक्ति ने आशुतोष पर घात किया है।"


"हरे.... हरे.... ये तो अनर्थ हो गया।" अच्युतानंद महाराज अत्यंत चिंतित होकर बोले- "अब अघोरा आशुतोष के विरूद्ध अपनी सम्पूर्ण शक्ति का प्रयोग करेगा।"


"परन्तु हमारे लिये सुखद ये है कि अघोरा के पास शरीर नहीं है और न ही वो अपनी परिधि से निकलकर आशुतोष या अनिका पर आक्रमण कर सकता है।" शिवदास जी बोले- "परन्तु चिंता की बात ये है कि उसके पास अनेकों प्रेतात्मायें बंधक हैं और उन प्रेतात्माओं की सहायता से वो उन पर प्रहार कर सकता है।"


"और शीघ्र ही वो दिन भी आने वाला है, जब अनिका की बलि देकर वो अपनी तंत्र- विद्या से धूम्रपाद के शरीर में प्रविष्ट होने का उद्देश्य रखता है।" अच्युतानंद जी चिंता से बोले।


"इसीलिये शुभ यही होगा कि शीघ्र ही आशुतोष और अनिका इस श्राप के चक्रव्यूह को तोड़कर अघोरा का नाश कर दें.... अन्यथा आप भी जानते हैं कि हमें क्या करना होगा।"


"मुझे नहीं लगता कि उसकी आवश्यकता पड़ेगी।" स्वामी अच्युतानंद विचलित होकर बोले- "आप जानतें हैं कि अनिका स्वयं ईशी है। उसमें स्वयं माता पार्वती का एक अंश है।"


"इसीलिये तो हम इतने वर्षों से अथक परिश्रम कर रहे हैं परन्तु यदि समय पर वो इस कार्य में सफल नहीं हुये तो हमें ये करना ही होगा।" शिवदास जी व्यग्र भाव से बोले- "अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वो दिन न आने पाये।"


"किंतु क्या ये उचित होगा शिवदास जी कि इतने वर्षों से जिनकी संतानवत् रक्षा करते आये हैं अब स्वयं उनका बलिदान ले लें? हमारा हृदय तो इसकी अनुमति नहीं देता।" अच्युतानंद जी व्यथित होकर बोले।


"संसार के उद्धार के लिये कभी- कभी कुकृत्य भी करने पडतें हैं अच्युतानंद जी।" शिवदास जी उदास होकर बोले- "अन्यथा क्या स्वयं भगवान विष्णु को देवी वृंदा का सतीत्व खंडित करना पड़ता?"


"आपका कथन उचित है मान्यवर!" अच्युतानंद जी बोले- "परन्तु सृष्टि में परमेश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी घटित नहीं होता। यदि उनकी इच्छा है कि अघोरा को धूम्रपाद का शरीर मिले तो उसे कौन रोक सकता है? परन्तु ईश्वर का ही कथन है कि धर्म सदैव विजित होता है इसलिये मुझे तो इस दुष्कृत्य का विचार भी निरर्थक जान पड़ता है।"


"पुरूषार्थ करना हमारा कर्तव्य है अच्युतानंद जी.... बाकी तो सब शिव की इच्छा पर है।" शिवदास जी ने गहरी सांस भरी- "अब तो बस ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वो दिन न आये, जब हमें ये कुकृत्य करना होगा।"


"ऐसा ही होगा।" अच्युतानंद महाराज पूरे विश्वास के साथ बोले।



* * *



क्रमशः


     ----अव्यक्त


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2 Comments

Pamela

02-Feb-2022 01:55 AM

Nicely written

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🤫

25-Jul-2021 01:19 AM

इंट्रेस्टिंग स्टोरी।खूबसुरत संवाद , अगले भाग के इनतजार में...

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